हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक अग्रिम जमानत से संबंधित गंभीर मामला आया, जिसमें कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी की—सिर्फ व्हाट्सएप या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नोटिस भेजना स्वीकार्य नहीं है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि वैधानिक नोटिस की सेवा हेतु निर्धारित प्रक्रिया का पालन अनिवार्य है।
मामला क्या था?
यह केस ओडिशा के मनोज कुमार मोहंती बनाम राज्य (SLP (Crl) No. s/2025) का था, जिसमें याचिकाकर्ता पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की कई धाराओं के तहत गंभीर अपराधों का आरोप था। जब कार्यवाही के दौरान न्यायालय ने पूछा कि क्या शिकायतकर्ता-पीड़िता को नोटिस सर्व किया गया है, तो वकील ने बताया कि वे पीड़िता से संपर्क नहीं कर पाए—इसी वजह से नोटिस व्हाट्सएप पर भेजा गया।
कोर्ट की तीखी टिप्पणी
इस पर सुनवाई कर रही खंडपीठ के जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया ने कहा,
“नहीं, नहीं। व्हाट्सएप या ट्विटर नहीं। जाकर नोटिस भेजो।”
यह साफ संकेत था कि सिर्फ सोशल मीडिया विशेषज्ञता या तकनीकी सुविधाओं के भरोसे नोटिस की विधिवत सेवा को हल्का नहीं लिया जा सकता। अदालत ने दोहराया कि नोटिस की सेवा उचित साधनों से होनी चाहिए।
पुलिस को विशेष निर्देश
याचिकाकर्ता के वकील ने भी अदालत से कहा कि शिकायतकर्ता उनके व्हाट्सएप संदेशों का उत्तर नहीं दे रही और जांच अधिकारी ने भी, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बिना, नोटिस की सेवा स्वीकारने से इनकार कर दिया है।
इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिया कि वह दो सप्ताह के भीतर नोटिस की सेवा पीड़िता को सुनिश्चित करें। साथ ही, कोर्ट ने यह अंतरिम निर्देश भी दिया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ उस दौरान कोई भी दंडात्मक कार्यवाही न की जाए।
पृष्ठभूमि और हाई कोर्ट का नजरिया
मामले की पृष्ठभूमि बताती है कि याचिकाकर्ता (पीड़िता के पिता) एवं शिकायतकर्ता के बीच पहले से कई मुकदमे विचाराधीन हैं। आरोप है कि पीड़िता को उसकी मां के इशारे पर फँसाया गया। ओडिशा हाई कोर्ट ने भी पीड़िता के बयान के आधार पर अग्रिम जमानत देने से मना कर दिया था।
निष्कर्ष
यह मामला प्रमाणित करता है कि भारतीय न्यायपालिका नोटिस की सेवा के विधिक मानकों के प्रति गंभीर है और तकनीकी माध्यमों पर पूरी निर्भरता स्वीकार नहीं करती। नोटिस की सेवा अब भी भौतिक और औपचारिक प्रक्रिया के जरिए ही करना सर्वोत्तम और वैध माना गया है।




