सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि जब संपत्ति हस्तांतरण में प्रेम और स्नेह जैसे विचार शामिल होते हैं और दाता अपने आजीवन हित को सुरक्षित रखते हुए संपत्ति स्थानांतरित करता है, तो यह सेटलमेंट डीड के रूप में गिफ्ट की श्रेणी में योग्य माना जाएगा। साथ ही, एक बार गिफ्ट स्वीकार कर लिए जाने के बाद दाता इसे एकतरफा रद्द नहीं कर सकता।
गिफ्ट, सेटलमेंट डीड और वसीयत में अंतर
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि सिर्फ आजीवन हित को सुरक्षित रखने और कब्जे की डिलीवरी में देरी से कोई दस्तावेज वसीयत नहीं बन जाता। कब्जे की डिलीवरी संपत्ति हस्तांतरण को मान्य करने के कई तरीकों में से एक है, न कि एकमात्र तरीका। न्यायालय ने कहा कि संपत्ति के पंजीकरण और दस्तावेज की प्राप्ति को गिफ्ट की स्वीकृति के बराबर माना जाएगा, जो संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 122 की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
मामला
इस मामले की सुनवाई जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने की। मामला एक पिता द्वारा 26 जून 1985 को अपनी बेटी (प्रतिवादी संख्या 1) के पक्ष में एक सेटलमेंट डीड निष्पादित करने से संबंधित था, जिसमें पिता ने आजीवन हित और सीमित बंधक अधिकार बनाए रखे थे। इस सेटलमेंट डीड में बेटी को संपत्ति का निर्माण करने और करों का भुगतान करने की अनुमति दी गई थी, जबकि पूर्ण कब्जा माता-पिता की मृत्यु के बाद होना था।
विवाद का उद्भव
विवाद तब पैदा हुआ जब पिता ने अपनी बेटी के पक्ष में की गई गिफ्ट को रद्द करने के लिए एक रद्दीकरण विलेख निष्पादित किया और इसके बजाय बेटे (अपीलकर्ता) के पक्ष में बिक्री विलेख निष्पादित किया। इसके जवाब में बेटी ने संपत्ति पर अपने अधिकार और स्वामित्व की घोषणा के लिए मुकदमा दायर किया, साथ ही रद्दीकरण विलेख और बिक्री विलेख को शून्य घोषित करने की मांग की।
ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट का निर्णय
ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने इस दस्तावेज़ को वसीयत माना और बेटी के मुकदमे को खारिज कर दिया। हालांकि, हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए दस्तावेज़ को गिफ्ट विलेख घोषित किया और रद्दीकरण व बिक्री विलेख को अवैध करार दिया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मुद्दा था कि क्या पिता द्वारा अपनी बेटी के पक्ष में निष्पादित सेटलमेंट डीड एक गिफ्ट, समझौता या वसीयत है।
हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए, जस्टिस महादेवन ने गिफ्ट, सेटलमेंट डीड और वसीयत के बीच अंतर को स्पष्ट किया। न्यायालय ने माना कि गिफ्ट एक निःशुल्क स्वैच्छिक हस्तांतरण है, जो दाता के जीवनकाल में प्राप्तकर्ता की स्वीकृति पर निर्भर करता है। साथ ही, संपत्ति का पंजीकरण अनिवार्य है, लेकिन कब्जे की डिलीवरी आवश्यक नहीं है।
सेटलमेंट डीड बनाम वसीयत
न्यायालय ने कहा कि जब प्रेम, स्नेह और देखभाल के आधार पर स्वैच्छिक हस्तांतरण किया जाता है, जिसमें आजीवन हित सुरक्षित रखते हुए तत्काल अधिकार बनता है, तो वह समझौता कहलाता है। वहीं, वसीयत केवल वसीयतकर्ता की मृत्यु के बाद प्रभावी होती है और जीवनकाल में इसे रद्द किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“दस्तावेज की सामग्री को समग्र रूप से पढ़ा जाना चाहिए, जिसमें वसीयतकर्ता के इरादे और उद्देश्य पर ध्यान दिया जाए। गिफ्ट में यह एक निःशुल्क अनुदान है, जबकि समझौते में यह प्रेम और स्नेह से प्रेरित होता है। वसीयत में संपत्ति का निपटान मृत्यु के बाद प्रभावी होता है।”
न्यायालय ने अपीलकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह दस्तावेज एक वसीयत थी। इसके बजाय यह पाया गया कि दस्तावेज में तत्काल स्वामित्व हस्तांतरण हुआ था, जिसमें आजीवन हित को सुरक्षित रखा गया था।
एकतरफा रद्दीकरण अमान्य
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गिफ्ट एक बार स्वीकार कर लिए जाने के बाद एकतरफा रद्द नहीं किया जा सकता। संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 122 के अनुसार, गिफ्ट प्राप्तकर्ता की स्वीकृति के साथ ही यह अपरिवर्तनीय हो जाता है। रजिस्ट्री विभाग भी इसे रद्द नहीं कर सकता।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को खारिज करते हुए हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें 1985 का दस्तावेज़ एक सेटलमेंट डीड माना गया और पिता द्वारा किया गया रद्दीकरण व बेटे के पक्ष में निष्पादित बिक्री विलेख को अमान्य घोषित किया गया। यह निर्णय गिफ्ट, सेटलमेंट डीड और वसीयत के बीच अंतर को समझने में एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में कार्य करता है।