सुप्रीम कोर्ट ने 1976 में पारित 42वें संविधान संशोधन के तहत प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है। यह फैसला चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की खंडपीठ ने सुनाया।
संसद की संशोधन शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तृत
सीजेआई खन्ना ने स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना को संशोधित करने की संसद की शक्ति सीमित नहीं है। प्रस्तावना को अपनाने की तिथि इस शक्ति को नहीं रोकती, इसलिए पूर्वव्यापीता का तर्क अस्वीकार किया गया।
उन्होंने कहा, “इतने सालों बाद इस प्रक्रिया को रद्द नहीं किया जा सकता।” साथ ही, उन्होंने ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ के अर्थ पर भी प्रकाश डाला।
“इतने साल बाद अब क्यों?”
सीजेआई खन्ना ने हैरानी जताते हुए कहा, “इतने सालों बाद अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है?”
याचिकाओं पर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
यह याचिकाएं बलराम सिंह, भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की थीं। खंडपीठ ने 22 नवंबर को फैसला सुरक्षित रखा था। इससे पहले याचिकाकर्ताओं की मामले को बड़ी पीठ को सौंपने की याचिका भी खारिज कर दी गई थी।
समाजवाद का भारतीय अर्थ
सीजेआई खन्ना ने कहा, “भारत में समाजवाद का अर्थ कल्याणकारी राज्य है। यह निजी क्षेत्र को नहीं रोकता। समाजवाद शब्द का प्रयोग हमारे संदर्भ में राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को दर्शाता है, जो अवसरों की समानता प्रदान करता है।”
धर्मनिरपेक्षता संविधान का मूल ढांचा
एसआर बोम्मई मामले का उल्लेख करते हुए सीजेआई ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का मूल ढांचा है। यह हमेशा से हमारे संविधान का अभिन्न अंग रहा है।
संशोधन की वैधता पर तर्क
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि आपातकाल के दौरान बिना जनता की सहमति के संशोधन पारित किया गया, जो विचारधारा थोपने जैसा है। एडवोकेट विष्णु शंकर जैन ने हाल ही में 9 जजों की पीठ के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें समाजवादी व्याख्या से असहमति जताई गई थी।
सीजेआई का जवाब
सीजेआई ने कहा, “संविधान में संशोधन की शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित है। यह संविधान का अभिन्न अंग है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि 42वें संशोधन को बहुत न्यायिक पुनर्विचार के बाद भी निरस्त नहीं किया जा सकता।
राज्यों की सहमति का मुद्दा
अश्विनी उपाध्याय ने तर्क दिया कि संशोधन राज्यों की सहमति के बिना पारित हुआ। उन्होंने न्यायालय से अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल की राय लेने का अनुरोध किया।
सुब्रमण्यम स्वामी का तर्क
डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि बाद में निर्वाचित संसद ने भी इन शब्दों को समर्थन दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि इन शब्दों को प्रस्तावना में अलग पैराग्राफ के रूप में जोड़ा जाना चाहिए था।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों की वैधता पर अंतिम मुहर लगाता है। यह निर्णय संविधान की मूल भावना को संजोने और संसदीय संशोधन शक्ति को पुनः स्थापित करने वाला है।
केस टाइटल: बलराम सिंह बनाम भारत संघ, डब्ल्यू.पी.(सी) नंबर 645/2020, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ, डब्ल्यू.पी.(सी) नंबर 1467/2020 और अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ, एमए 835/2024।