पीठ: न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भूयान
🔹 भूमिका:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि मजिस्ट्रेट तब तक FIR दर्ज करने का निर्देश नहीं दे सकते, जब तक शिकायतकर्ता CrPC की धारा 154(1) और 154(3) के अंतर्गत उपलब्ध उपायों का पालन नहीं करता। अदालत ने यह दोहराया कि शिकायतकर्ता को पहले थाना स्तर पर रिपोर्ट करनी चाहिए, और यदि पुलिस कार्रवाई नहीं करती, तो पुलिस अधीक्षक (SP) के समक्ष लिखित शिकायत देना आवश्यक है।
यह निर्णय Priyanka Srivastava बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) में दिए गए दिशा-निर्देशों के अनुसार है, जिसका उद्देश्य धारा 156(3) CrPC के दुरुपयोग को रोकना है।
🔹 संबंधित धाराएं:
- CrPC धारा 154(1) (अब BNS की धारा 173) – सबसे पहले पुलिस थाने में अपराध की रिपोर्ट करनी होती है।
- CrPC धारा 154(3) (अब BNS की धारा 173) – यदि थाना FIR दर्ज करने से इनकार करे, तो SP को लिखित शिकायत देनी होती है।
- CrPC धारा 156(3) (अब BNS की धारा 175) – मजिस्ट्रेट तभी पुलिस को FIR दर्ज करने का आदेश दे सकते हैं, जब उपरोक्त दोनों उपायों का प्रयोग किया जा चुका हो।
- Priyanka Srivastava निर्णय (2015) – स्पष्ट किया गया कि धारा 156(3) CrPC के तहत मजिस्ट्रेट का आदेश पाने से पहले, SP को शिकायत देना और आवेदन के साथ शपथपत्र लगाना अनिवार्य है।
🔹 मामले के तथ्य:
शिकायतकर्ता (प्रतिवादी नं. 2) ने मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) CrPC के तहत एक आवेदन दाखिल किया, जिसमें IPC की धारा 420 (धोखाधड़ी) और 120-B (षड्यंत्र) के तहत FIR दर्ज करने की मांग की गई थी। मजिस्ट्रेट ने बिना यह जाँचे कि क्या शिकायतकर्ता ने पहले पुलिस के समक्ष शिकायत की थी, सीधे FIR दर्ज करने का आदेश दे दिया।
इस आदेश को चुनौती याचिकाकर्ताओं ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में दी, लेकिन हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट के आदेश को सही ठहराया। इसके बाद याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
🔹 सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न:
- क्या मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं, यदि शिकायतकर्ता ने पहले पुलिस के समक्ष शिकायत न की हो?
- क्या हाईकोर्ट ने Priyanka Srivastava के दिशा-निर्देशों की अनदेखी की?
🔹 याचिकाकर्ता की दलीलें:
- शिकायतकर्ता ने न तो पुलिस थाने में शिकायत दी और न ही SP को।
- आवेदन के साथ कोई शपथपत्र भी नहीं दिया गया था।
- Priyanka Srivastava मामले के स्पष्ट आदेशों की अवहेलना हुई।
- मजिस्ट्रेट का आदेश कानून के विपरीत और प्रक्रिया के उल्लंघन में था।
🔹 प्रतिवादी की दलीलें:
- शिकायत Inspector General को दी गई थी, जो बाद में Economic Offences Wing को भेजी गई।
- तकनीकी त्रुटि के चलते यदि धारा 154(3) का उल्लेख नहीं भी किया गया, तो भी शिकायत की मूल भावना स्पष्ट थी।
- मजिस्ट्रेट के पास जांच का आदेश देने का विवेकाधिकार है।
🔹 सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय:
- अनिवार्य प्रक्रिया का पालन ज़रूरी – शिकायतकर्ता को पहले पुलिस और फिर SP को संपर्क करना चाहिए।
- मजिस्ट्रेट का सीमित अधिकार – बिना प्रक्रियात्मक जाँच के FIR का आदेश देना गलत है।
- हाईकोर्ट की गलती – सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की खिंचाई की कि उसने स्थापित कानून की अनदेखी की।
- परिणाम – मजिस्ट्रेट का FIR दर्ज करने का आदेश रद्द कर दिया गया। हाईकोर्ट का आदेश भी खारिज।
शिकायतकर्ता को यह छूट दी गई कि वह पहले पुलिस के पास जाकर उचित प्रक्रिया अपनाएं, फिर यदि आवश्यक हो तो नया आवेदन प्रस्तुत करें।
🔹 निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय (Ranjit Singh Bath बनाम UT Chandigarh) यह सुनिश्चित करता है कि CrPC की धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज कराने से पहले, शिकायतकर्ता को सभी वैधानिक उपायों का पूर्ण रूप से पालन करना अनिवार्य है।
यह फ़ैसला आपराधिक कानून के दुरुपयोग को रोकता है, न्यायिक अनुशासन को बनाए रखता है और निष्पक्ष जांच प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है।