हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने विवाहेतर संबंध (Extramarital Affair) से जन्मे बच्चों के कानूनी पिता की स्थिति को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई बच्चा पत्नी के किसी पुरुष मित्र से संबंध के कारण जन्मा है, तब भी उसके कानूनी पिता पति ही माने जाएंगे। यह फैसला भारतीय समाज और पारिवारिक कानूनों की दृष्टि से बेहद अहम माना जा रहा है।
क्या है मामला?
सुप्रीम कोर्ट में एक ऐसे मामले की सुनवाई हुई जिसमें पति ने दावा किया था कि उसकी पत्नी के किसी अन्य पुरुष के साथ विवाहेतर संबंध थे और बच्चा उसी पुरुष का है। पति ने अदालत से निवेदन किया कि उसे बच्चे की जिम्मेदारी से मुक्त किया जाए।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और अन्य कानूनी प्रावधानों के अनुसार, यदि बच्चा विवाह के दौरान जन्म लेता है तो वह पति का ही माना जाएगा, जब तक कि पितृत्व परीक्षण (DNA Test) से इसका खंडन न हो।
सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियां
- कानूनी पिता की मान्यता: कोर्ट ने कहा कि यदि बच्चा वैवाहिक जीवन के दौरान पैदा हुआ है, तो उसे पति का संतान माना जाएगा, जब तक कि अदालत में पर्याप्त सबूतों के साथ इसका खंडन न किया जाए।
- DNA टेस्ट का महत्व: सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक पितृत्व परीक्षण (DNA Test) के माध्यम से यह साबित नहीं हो जाता कि बच्चा किसी अन्य पुरुष का है, तब तक पति कानूनी पिता बना रहेगा।
- बच्चे के हितों की सुरक्षा: अदालत ने यह भी कहा कि बच्चों के हितों की रक्षा सर्वोपरि है और उनके अधिकारों को सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है।
- नैतिकता बनाम कानून: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विवाहेतर संबंध नैतिक रूप से गलत हो सकते हैं, लेकिन कानूनी दायित्वों से बचने का आधार नहीं बन सकते।
भारत में विवाह और पितृत्व से जुड़े कानूनी प्रावधान
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112: यह धारा कहती है कि यदि कोई बच्चा विवाह के दौरान जन्म लेता है, तो उसे पति की संतान माना जाएगा, जब तक कि इसका ठोस प्रमाण न हो कि पति पिता नहीं है।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: इस अधिनियम के तहत विवाह के दौरान पैदा हुए बच्चों को वैध संतान माना जाता है, चाहे उनकी उत्पत्ति किसी भी परिस्थिति में हुई हो।
इस फैसले का प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का समाज और कानून दोनों पर गहरा असर पड़ेगा।
- पति की जिम्मेदारी: यदि किसी पति को शक भी हो कि बच्चा उसका नहीं है, तो उसे कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होगा, न कि केवल आरोपों के आधार पर जिम्मेदारी से मुक्त हो सकता है।
- बच्चों के अधिकार: यह निर्णय बच्चों के कल्याण और उनके कानूनी अधिकारों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
- महिलाओं की स्थिति: यह फैसला यह भी दर्शाता है कि महिलाओं के निजी संबंधों को लेकर कानूनी जटिलताएं बनी हुई हैं, लेकिन बच्चे के हित सर्वोपरि रहेंगे।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कानूनी, सामाजिक और नैतिक दृष्टि से एक ऐतिहासिक फैसला है। यह स्पष्ट करता है कि विवाहेतर संबंधों से जन्मे बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा की जानी चाहिए और पति को कानूनी रूप से पितृत्व का दायित्व निभाना होगा, जब तक कि इसका खंडन ठोस सबूतों द्वारा न किया जाए। यह फैसला न केवल परिवार की स्थिरता को बनाए रखने में सहायक होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि कोई भी बच्चा अपनी पहचान और कानूनी अधिकारों से वंचित न रहे।